Wednesday 23 August 2017

स्वागत योग्य निर्णय ! सफर अभी बाकी है.....


तीन तलाक के विरोध में 22 अगस्त 2017 के एतिहासिक दिन माना जा रहा है जबकि क्या वास्तव में यह एतिहासिक दिन है। बात जब अधिकार और समानता कि है तो मुद्दों पर पूरी तरह से नजर डालना होगा। कुरान और हदीस मे तीन तलाक का कही भी जिक्र नहीं आता है जबकि तलाक के लिये एक विस्तृत प्रकिया सूरह बकर कुरान की पहली सूरह मे है। जो कि किसी भी महिला और पुरूष के सम्बन्ध को विच्छेद करने के लिये पर्याप्त समय देता है जो कि लगभग छ माह का समय है। जिसके कुछ सख्त नियम है जैसे इस समयावधि मे पति पत्नी के बीच किसी भी प्रकार सम्बन्ध नहीं होगें। महिला इस दौरान अगर अपने पति के घर मेे रहती है तो उसके साथ किसी भी प्रकार का गलत व्यवहार नहीं किया जा सकता है। सम्भवतः यह सम्यावधि उन बिखरते रिश्तों से बेहतर है जो महिला को बिना कोई दोष बतायें उसके माता पिता के घर में  छोड दें या फिर कोर्ट में लम्बे समय तक अलग होने का केस चले जिससे महिला के लिये आगे बढने के विकल्पों पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे। इस फैसले में प्वांट 56 और 57 में भी माना गया है कि एक साथ तीन बार तलाक बोलने से तलाक नहीं होगा।

तलाक का डिटेल फिल्म निकाह से लिया जाता है जबकि ध्यान रखने की बात यह है कि फिल्म सिर्फ तीन घंटे होती है।

इस्लाम में जहेज यानि कि लडकी के माता पिता के घर से मिलने वाली सामग्री का जिक्र हदीस मे इस प्रकार है कि हजरत मोहम्मद सलल्लाहो ऐलहे वस्सलम ने अपनी बेटी हजरत फातिमा जहरा को घरेलू इस्तेमाल कह कुछ चीजे दी थी जिन्हे हजरत अली जो कि हजरत फातिमा जहरा के पति थे की ढाल बेच कर खरीदा गया था। हदीस के आधार पर उक्त सामग्री जब लडके के घर से ही ली गई है। इसी लिये अलग होने के वक्त उसे लडकी उस सामान को हासिल नहीं कर सकती है। वहीं निकाह के समय तय किये गये महेर पर लडकी का पूरा अधिकार है।


सवाल बहुत है जिन के जवाब  ढूंढे तो पता चलेगा की बहुत कम ही लोग है जिनको इनके बारे में पता होता है । और इसके चक्कर में जयादातर वही लोग आते है जो निरक्षर है या फिर पढ़े लिखे तो है लेकिन कुरान और हदीस की रौशनी में चीजो को उतना ही समझ पाते जितना उन्हें बताया जाता है क्योंकि इसे उन्होंने अपनी भाषा में न तो पढा न ही जाना।  हजरत मुहम्मद सलल्लाहो ऐलहे वस्सलम ने फरमाया तलिबुल इल्मो फरीजतून अला कुल्ले मुसलमीन  यानि की इल्म की तलब हर मुसलमान पर फर्ज है । और इल्म के नाम पर सिर्फ बड़ी किताब यानि के कुरान पढ़ा के बेटी बिदा करना  ही मान लिया गया है लेकिन अगर सिर्फ इस किताब को भी मायनों के साथ पढ़ा दिया जाये तो शायद बेटियों को इस तरह के सवालो का सामना ही न करना पड़े। या फिर बहुत सी डिग्रिया हासिल कर ली लेकिन यहाँ भी कुरान पढ़ने के नाम पे सिर्फ अरबी में पढाई की ये कुरान क्या  कह रहा है इसको  अपनी भाषा में जानने की कोशिश  ही नहीं की। कुरान के नजरिये से देखे तो कुरान की पहली सूरह जो नाजिल हुई वह है सूरह अल अलख या इसे सूरह इकरा भी कहते हैं। जिसका मतलब है पढो! अपने ईश्वर का नाम ले के पढो।


अगर औरतों के हक की बात करते हैं तो औरतो को पढना ही होगा न सिर्फ कुरान बल्कि हर वह उदरण जो उनसे सम्बन्धित हो उसे समझना होगा और चर्चा करनी होगी जब तक उनके बारे में दूसरे फैसले लेगें और कानून बनायेगे समस्या वहीं रहेगी। औरतो को बराबरी का दर्जा देने के लिये बहुत से कानून है उस दर्जे को सिर्फ मुबारकबाद देकर नहीं हासिल कर सकेंगे उसके लिये लडना होगा। भले ही यह स्वागत योग्य निर्णय है लेकिन औरतों के लिये अपने हक के लिये बहुत आगे तक सफर तय करना होगा। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय हदीस के आधार पर है जिसमे यह जरूर माना गया है मौखिक को तलाक को तलाक नहीं माना जायेगा। इसलिये हमें इस निर्णय को पूरी तरह समझना होगा।