Wednesday 19 March 2014

पत्थर

क्य़ा  सच में इंसान
पत्थर दिल होता
पत्थर के नीचे ही होता
चश्मे का  सोता
हरयाली कि आस भी
ज़िन्दगी का एहसास भी
मुश्किलो में उमंग के साथ
पत्थर के नीचे
ज़िन्दगी के हाथो  में हाथ
एक जहाँ सजता
तो कैसे इंसान
पत्थर दिल हो सकता

Tuesday 18 March 2014

खुशियाँ

 खुशियाँ 

सपनों   के नगर में , काँच  के शहर में 
 छोटी सी दुकान में बिकती हैं खुशिया
 उसी दुकान के पीछे बड़े मकान  के बाद 
छोटी सी झोपड़ी है  मेरी  दुनिया 
बनाती मैं कंगन बनाती मैं  बर्तन
 नन्हे खिलोने के संग बनाती मैं चूड़ियां 
बहते मेरे आंसू जब धुआं धुआं  उगलती थी चिमनिया 
जले मेरे हाथ जब बटोरती मैं किरचियाँ 
पकड़ी जो किताब मैने   छिनी मेरे हाथ से 
मैं रोती थी तब भी जब बिकती थी रद्दिया 
हाथों का जलना आंसू का बहना 
छीनना किताबे है मेरे बचपन कि अनमिट निशानियाँ